Monday, February 16, 2015

कतरन - 5

* मनुष्यके पास आज क्या नहीं हैं ? लेकिन फिरभी वह दिन प्रति दिन बाहर से फैलता और अन्दरसे सिकुड़ता जा रहा है , आखिर यह घटना मनुष्यको कहाँ पहुचाना चाह रही है ?
* आज जितनी दुकानें योग -ध्यान से सम्बंधित खुलती जा रही हैं , आयुर्वेदका जितना फैलाव हो रहा है और इन सब में मनुष्यकी जितनी दिलचस्बी बढ़ती सी दिख रही है , उसके हिसाब से तो :--
** मनुष्यको अन्दर से फैलना चाहिए था और बाहरसे सिकुड़ना चाहिए था पर हो रहा है सब उल्टा ,आखिर क्यों ?
** जब अहंकारकी सघनता बढती है ,तब मनुष्य बाहर से फैलता है और जब मनुष्यकी बुद्धि निश्चयात्मिका बुद्धि न रह कर अनिश्चयात्मिका बुद्धि हो जाती है तब मनुष्य अन्दरसे सिकुड़नें लगता है --- अर्थात  -
# इस समय मनुष्य अहंकार और संदेहका गुलाम होता जा रहा है और मोह एवं भयमें अपनी पक्की बस्ती वना रहा है और यदि ऐसा है तो आयुर्वेद एवं ध्यान का बढ़ता विस्तार बाहर - बाहरसे तो प्रभावी सा दिखता रहेगा पर मनुष्य उनको दिल से स्वीकारनें में समर्थ नहीं हो सकेगा ।ऐसी परिस्थिति में योग , ध्यान और आयुर्वेद क्या कर सकते हैं जब मनुष्य स्वयंको बदलना ही नहीं चाह रहा ? # जैसे - जैसे भौतिक ज्ञान बढ़ रहा है ,मनुष्य की बेचैनी बढती जा रही है जबकि बेचैनी घटनी चाहिए थी ।ऐसी जानकारी जो बेचैनी को बढाती हो , उसे ज्ञान नहीं अज्ञान कहते हैं ।
# जैसा बीजोगे , वैसा काटोगे ।
~~~ ॐ ~~~

1 comment:

रविकर said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार को
दर्शन करने के लिए-; चर्चा मंच 1893
पर भी है ।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!